सोमवार, 12 अप्रैल 2010

यह अख़बार

मीडिया अब एक धंधे की शक्ल ले चुका है. इस पेशे से जुड़े रणनीतिकारों की एकसूत्री चिंता रहती है कि सर्कुलेशन कैसे बढे. कैसी तस्वीरें लगायीं जाएँ, कैसी खबरें बनायीं जाएँ, कैसे हाकर्स को पटाया जाये. इसके लिए वे दिन-रात नए-नए जतन करते रहते हैं.ऐसे माहौल में रहने का, काम करने का मुझे भी अवसर मिला है. उसी का एक अनुभव चित्र इस कविता में है. यह रचना १९८७-१९८९ के बीच की है. प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका अभिनव कदम में प्रकाशित हो चुकी है. समय जरूर निकल गया है लेकिन परिस्थितियां बिल्कुल वही हैं. आप खुद देखें----


लो केवल डेढ़ रूपये में
दस आदमियों का खून
विधवा के साथ एक दर्जन
सिपाहियों द्वारा रात भर बलात्कार

चाहो तो कमीशन भी मिलेगा
पचास पैसे काट लो
लो, केवल एक रूपये में
शहर के अमनपसंद लोगों पर
आतंक के साए
मंगरू की जवान बेटी का
अपहरण, फिर खून

तुम पुराने ग्राहक हो
तुमसे क्या सौदा
ले जाओ, बाँट दो शहर में
दंगाइयों द्वारा काटे गए गले
जलाये गए धड

यह तो धंधा है प्यारे
कुछ खोवो, कुछ पाओ
कुछ खिलाओ, कुछ खाओ
मौत के बाजार में हिस्सा बंटाओ
चाहो तो कुछ दोस्तों को भी
रोजगार दिलाओ

ले जाओ, पहचान के आदमी हो
पैसा कल दे देना
लो, जिस्मफरोशों के चंगुल से
छूटी लड़की थानेदार के हाथों फँसी
लुट-लुटाकर भी चार हजार में बिकी

चाहो तो मोलभाव भी कर लो
नाक-भौं क्यों सिकोड़ते हो
इतना मसाला क्या कम है
चिंता न करो, ले जाओ
न बिके तो वापस कर जाना

कुछ ऐसा है
जो कहीं नहीं मिलेगा
गरीबों के गुर्दे का व्यापार
एक के पचास हजार
दोनों के पूरे एक लाख

ले जाओ, साधु की कुटिया से बरामद
बच्चों की खोपड़ियाँ
एक साथ पुल से छलांग लगाने वाले
प्रेमी युगल के शव

बिकेगा, खूब बिकेगा
मंत्री के यौनाचार का खुलासा
संसद में सरफोड़ तमाशा
देर मत करो
आँख मूंद कर ले जाओ
नए ग्राहक बनाओ
अब रुकने वाला नहीं है

मेरा व्यापार
यह अख़बार

1 टिप्पणी:

  1. "व्यवस्था पर एक तमाचा" आपने लिखा मैंने बांचा।
    सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

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